उत्तर भारत की क्षेत्रीय बोलियों की ऐतिहासिक यात्रा
भारतीय चिंतन परंपरा में भाषाओं का लंबा इतिहास रहा है। भाषा का ऐसा बहुरुपी अस्त्तित्व औऱ कहीं नहीं मिलता। भौगोलिक विस्तार के अनेक जनपदों औऱ उनमें व्यवह्रत अठारह बोलियों के वैविध्य को, जिनमें से कई व्याकरण दृष्टि से एक दूसरे की विरोधी विशेषताओं से युक्त कही जा सकती है, में बड़े सहज भाव से धारण करने की क्षमता है। धारण करने की इस शक्ति ने भारतीय संस्कृति को प्रबल ग्रहणशीलता और प्रवहमानता दी है। हिंदी क्षेत्र की 19 बोलियां अलग-अलग अपभ्रंशों से विकसित हुई है। प्रसिद्ध भाषाविद् ग्रियर्सन के अनुसार हिंदी क्षेत्र की बोलियों की विशेषताएं आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताओं के समतुल्य है।
साहित्य की रचना –प्रक्रिया एकतरफा नहीं होती। सूचना एकतरफा होती है, साहित्य बराबर द्वपक्षीय होता है। रचना जीवन का अर्थ-विस्तार करती है तो भावक-आलोचक रचना का अर्थ-विस्तार करता है। यह संभव होता है भाषा की अपनी बहुरुपी प्रकृति और बहुस्तरीय अर्थ-क्षमता के कारण। किसी विशिष्ट भाषा की बड़ी रचना का बड़प्पन इसी में है कि वह अनेक युगों के पाठक की व्याख्याओं को आत्मसात् करती हुई अपने को समृद्ध करती है और कालजयी बनती है।
हिन्दी पट्टी में प्रचलित भाषाओं में भोजपुरी का एक विशिष्ट स्थान है। भाषाई परिवार के स्तर पर भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में बोली जाती है। अन्य क्षेत्रिय भाषाओं मसलन-वज्जिका,मैथिली,अंगिका और मगही आदि मे भोजपुरी सबसे समृद्ध और जनस्वीकार्य भाषा मानी जाती है। ऐसी जनधारणा है कि इसमें ध्वन्यात्मक लालित्य भी अधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड लोग भोजपुरी बोलते हैं और पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग चार करोड़ है। भाषा विस्तार के मामलें में भोजपुरी को अन्य क्षेत्रिय भाषाओं की तुलना में अंतरर्राष्ट्रीय पहचान मिली है जो इसके कद को वैश्विक रुप से बड़ा बनाती है।
भाषायी लोकप्रियता की हालिया पड़ताल बताती है कि भोजपुरी अन्य सहोदर भाषाओं को पछाड़कर अग्रणी पंक्ति में अपनी बढ़त बनाये हुए है। इसके पीछे भोजपुरी का कालबद्ध विस्थापन और विश्वस्तरीय प्रचार-प्रसार एक बड़ी वजह है। है। दरअसल आमजन में एक आम धारणा है कि ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से जो मजदूर अंग्रेजों द्वारा बाहर ले जाए गए थे उनके वंशज उन्हीं देशों में बस जहां उनके पूर्वज गये थे। वे अपने साथ जो भाषा ले गये कालक्रम में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका विस्तार होता रहा और एक निश्चित समयावधि में वह उनकी संस्कृति व संप्रेषण का स्थायी हिस्सा बन गया। अन्य भाषाओं के वनिस्पत भोजपुरी का काल-विस्थापन व्यापक स्तर पर हुआ जिससे उसे सहज ही पल्लवित होने का अवसर मिला।
यही कारण है कि भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर हुआ है। सुरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और फिजी आदि कई देशों में भोजपुरी का बोलबाला है। जाहिर है अतीत में ये देश वांछित रुप से भोजपुरी के संवाहक बनें। दरअसल अन्य भाषाओं की तुलना में भोजपुरी का साहित्य हमेशा से समृद्ध रहा है। भोजपुरी के शेक्सपियर माने जाने वाले भिखारी ठाकुर के प्रयासों ने इसे जन साहित्य का रूप दिया ।बाद में कई नामचीन साहित्यकार आगे आए जिन्होने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं से इसे विश्वस्तरीय बनाया । भोजपुरी के एक लोकप्रिय भाषा के रूप में उभरने की एक वजह यह भी रही कि इस भाषा में अनेक पत्र-पत्रिकाएं तथा ग्रंथ लगातार प्रकाशित होते रहे हैं। इसके अलावा विश्व भोजपुरी सम्मेलन आंदोलनात्मक, रचनात्मक और बौद्धिक तीनों स्तरों पर भोजपुरी भाषा साहित्य और संस्कृति के विकास में निरंतर जुटा है। इससे जुड़े लेखक, कवि और अधिकारी जहां एकतरफ भाषा और साहित्य को सहेजने में लगे है वहीं दूसरी ओर इसके साहित्य कोष को नई-नई कृतियों से लगातार भरा जा रहा है। रचनात्मकता से इतर अगर बात करें तो भोजपुरी सिनेमा ने भी इसे ऊंचाइयों तक पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है। बाईस सौ करोड़ रुपये के भोजपुरी सिनेमा का विस्तार आज नेपाल से लेकर दुनियां के कई देशों तक है।
वहीं अगर वज्जिका की बात करें तो उत्तर भारत के महावीर और बुद्ध की जन्मभूमि की भाषा होने के बावजूद इसे भोजपुरी जैसी पहचान और लालित्य प्राप्त नहीं हो सका । हालांकि इसकी प्राचीनता और गरिमा वैशाली गणतंत्र के साथ जुड़ी हुई है फिर भी इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है । इसकी एक बड़ी वजह रही इसके लिखित साहित्य का सहेजा न जाना । इस कारण इसका लिखित साहित्य क्रमिक रुप से विनष्ट हो गया। हालांकि देश में लगभग 1 करोड़ 15 लाख लोग वज्जिका बोलते हैं और यह उत्तर बिहार में बोली जाने वाली दो अन्य भाषाओं भोजपुरी और मैथिली के बीच के क्षेत्रों में सेतु के रूप में काम करती है । फिर भी संस्थागत असहयोग एवं पर्याप्त साहित्य भंडार के अभाव में बज्जिका की पहचान भाषा के रूप में अब तक नहीं बन सकी है।
उधर मैथिली की भी स्थिति कुछ खास संतोषजनक नहीं है। भले ही जनसहयोग के प्रयासों से इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर आधिकारिक मान्यता दे दी गई हो लेकिन आज भी यह अंतर्राष्ट्रीय पहचान को तरस रही है। हांलाकि मैथिली चित्रकला ने जरुर इसे वैश्विक फलक पर पहचान दिलाई है लेकिन वो स्थान विशेष की पहचान तक ही सीमित रही । इससे भाषाई अस्मिता का संकट कभी दूर नहीं हुआ। भारत की जनगणना 2001 के अनुसार वज्जिका,कवारसी,दक्खिनी,कन्नौजी आदि बहुसंख्यक बोलियों को हिंदी की श्रेणी से गायब कर दिया गया है।यह स्थिति चिंता डालने वाली है।
भोजपुरी की अन्य सहोदर भाषा अंगिका की बात करें तो यह भी अपनी अस्मिताई दुर्दशा को लेकर त्रस्त है। दुनियां की प्राचीन भाषा अंगिका जो अंग महाजनपद की मह्त्वपूर्ण भाषा है, दुर्भाग्य आज भी उत्कृष्ट साहित्य के प्रकाशन की बाट जोह रही है।
भागलपुर,बांका,मुंगेर,पूर्णिया,कटिहार,मधेपुरा,समेत कई इलाकों में लाखों लोगों की भाषा अंगिका अपनी अदद पहचान की तलाश में प्रयासरत है। इसके लगभग 7 लाख भाषा-भाषी है। इसके लोक-गीतों का अपना महात्मय और लालित्य है। लेकिन विडंबना है कि आज अंगिका भी वही स्थिति है जो कमोबेश वज्जिका और अन्य लोकभाषाओं की है। भोजपुरी की मानिंद इसका साहित्य उतना समृद्ध नहीं क्योंकि इसके प्रचार-प्रसार को लेकर राजकीय उदासीनता हमेशा बनी रहीं। इसमें विपुल मात्रा में रचनाओं का पल्लवन और प्रकाशन नहीं हो पाया जिससे भाषा की दौड़ में ये भाषा पिछड़ गई। विद्वानों के असहयोग और पर्याप्त साहित्य भंडार के आभाव में उत्तरोत्तर यह वह पहचान कायम नहीं कर सकी जिसकी जनअकांक्षा थी। लोकभाषा अंगिका भविष्य में विपुल साहित्य भंडार से परिपूर्ण होकर एक भाषा के रुप में अपनी पहचान बना लेगी इसके बहुत कम आसार है। क्योंकि इस दिशा त्वरित और ईमानदार प्रयास नहीं हो पा रहे। इस भाषा विशेष में स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं का भी भारी आभाव है जो किसी भाषा के उन्नयन हेतु पहली आवश्यकता है। क्षेत्रविशेष के भाषाविदों की हमेशा से ये मांग रही है कि भोजपुरी,मैथिली, मगही आदि अन्य भाषाओं की तरह ही अंगिका को यथोचित प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। जो केवल भागीरथ प्रयासों से ही संभव है।
किसी भी भाषा के समुचित विस्तार और प्रचार-प्रसार में समकालीन साहित्यकारों, उत्कृष्ट रचनाओं, लोकगीतों और लोकभावनाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसमें साहित्य परंपरा की भी अविछिन्न भूमिका रहती है। साथ ही विद्वानों और भाषाविदों की महती भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता । सभी स्तरों पर समवेत प्रयासों से ही किसी भाषा की दशा और दिशा तय होती है। जिस प्रकार भोजपुरी को विश्व फलक पर सर्वोत्कृष्ट बनाने के ईमानदार प्रयास किये गये है वही प्रयास अन्य क्षेत्रिय भाषाओं के लिए भी अपेक्षित है। शासकीय स्तर पर भी सहयोग की सहयोग की सर्वथा आवश्यकता है। भाषा किसी भी संस्कृति की थाती होती है उसका समय और काल के लिहाज से सहेजा जाना आवश्यक है। सांस्कृतिक विसंगतियां भाषाओं को जमींदोज कर देती है। संस्कृति को जीवित रखना है तो इन भाषाओं का अस्तित्व भी बनाये रखना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब भारत भूमि से ये भाषायें विलुप्त हो जायेगीं।
डॉ दर्शनी प्रिय दिल्ली