"संदूक"

पुराने घर में मैंने मेरे संदूक से 
कुछ पुरानी चिट्ठियाँ माँगी थी 
नीले अंतर्देशी पर नीली ही 
स्याही में लिखे शब्दों से 
रिश्ते साधने की कुछ नाकाम 
तो कुछ कामयाब कोशिशें 
जो चिपका दी जाती थीं उस ज़माने 
में नीली ही बॉटल की गोंद से 

संदूक ने बाअदब मेरी गुज़ारिश मंज़ूर कर ली 
और उसने वो सारी चिट्ठियाँ मेरे सुपुर्द कर दीं 
जिनमें दोस्ती थी,इश्क़ था,लड़कपन था,मेरा बचपन था 

भला वो चिट्ठियाँ कहाँ होती थी 
महज़ वो काग़ज़ का टुकड़ा नहीं 
वो भावनाओं का आईना होती थीं 

पीले पोस्टकार्ड पर मैंने अपने जज़्बात 
कभी सरेआम नहीं होने दिए 
बचती रहीं मैं उनसे,नज़रें चुराती रही 
इकट्ठा करती रही जज़्बात अपने 
और इंतज़ार के लिए मनाती रही 
अंतर्देशी भले ही देर से आएगा 
लेकिन इसकी जगह पोस्टकार्ड नहीं ले पाएगा

संदूक बेचारा उन चिट्ठियों के बिना 
अब उनसे बिछड़ने के सदमे में है 
पुराने ज़माने का हो गया है 
आख़िरकार वो 
किसी काम नहीं रहा वो 
इसलिए ऊपर टाँड़ के पीछे पर्दे में है 

लेखक
कीर्ति सिंह गौड़ इंदौर